Friday, August 17, 2018

Atal Bihari Vajpayee And The Evolution Of The Indian Right

Former Prime Minister Shri Atal Bihari Vajpayee passed away today.

Vajpayee commanded the greatest stature and prestige among Right-Wing politicians in India. He led the politics of the RSS in the parliamentary arena since the Jan Sangh days through the Janata Party phase to its culmination in the BJP. His flirtations with Gandhian Socialism remain a forgotten phase of BJP history. But it was Vajpayee who was chosen as the governance face of the BJP after the party had emerged as the largest party under Advani’s aggressive Hindutva campaign.

In the memorable phrase used by RSS ideologue Govindacharya to describe him, he was the liberal mask – mukhauta – while Advani represented the BJP’s unvarnished character. He was among the BJP’s most prominent representative in an era when the party needed to mask its communal fascist politics. For allies in the NDA coalition who were squeamish about supporting Sangh ‘hardliners’ like Advani or Modi, Vajpayee’s genial and gentlemanly persona provided the proverbial fig-leaf.

To play the role demanded of him in the era of the first NDA Government, Vajpayee had to soften his own political lexicon. As we hear Modi’s and Amit Shah’s poisonous propaganda about immigrants today trying to communalise the NRC issue, we should remember how Vajpayee made an inflammatory election speech in Assam in 1983, saying, ‘Foreigners have come here; and the Government does nothing. What if they had come into Punjab instead, people would have chopped them into pieces and thrown them away.” Soon after that, 2000 Muslims were massacred at Nellie. The BJP then felt the need to distance itself from that speech. In 1992, Vajpayee was among those strategically picked by the Sangh to leave Ayodhya on the eve of the Babri Masjid Demolition, after giving a speech in which he – always a master of language – hinted in coded language to an audience of kar sevaks that naturally demolition implements were needed because the ‘ground needs to be levelled.’ The roars from the appreciative audience – which went on to demolish the mosque the next day – suggest that his euphemism was understood.

As Prime Minister, Vajpayee obliquely rebuked Modi for failing to uphold ‘rajdharma’ in the Gujarat 2002 communal violence, even as he allowed Modi to continue as Chief Minister and did nothing to ensure safety of Gujarat’s Muslims during and after the violence. He maintained a posture of civility and debate – even as he called for a ‘debate on conversions’ after Christian people faced communal violence at the hands of the Sangh machinery in Gujarat on the pretext of opposition to conversions. In 2004 the Vajpayee-led NDA suffered a comprehensive defeat in the wake of the Gujarat genocide and the collapse of the India Shining fiction.

Today, the BJP, NDA and their Government are in a very different era. No longer is any mask needed – it is Modi and Yogi who make no secret of their communalism, who are now the BJP’s stars. Lynchers can now be garlanded by Ministers, Sangh outfits can embrace a man who burnt a Muslim alive on camera as their hero: the BJP no longer needs any ambiguous-sounding call for a ‘national debate’ on ‘cow slaughter’ or ‘love jehad’. The BJP leaders of Vajpayee’s era, including his colleague who complemented his role in the NDA, Advani, have been summarily put in their place – the ‘advisory’ shelf.

Vajpayee represented the illusion of the Indian ruling classes and rightwing intelligentsia that the BJP could become a conservative rightwing party without a communal fascist core. Long before Vajpayee’s physical demise, that illusion had begun to fade.

Today, Atal Bihari Vajpayee remains a key reference point in India’s rightwing political history; a yardstick that will help us assess the vicious intensity of the current phase of fascist offensive through the continuum and contrast between the Vajpayee era of yesterday and the Modi era of today.

– Issued by CPI(ML) Liberation on 16 August 2018

बाजपेयी और भारतीय दक्षिणपंथ की विकास यात्रा

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी का गुरुवार को देहान्‍त हो गया.


भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं में वे सबसे बड़े कद और सर्वाधिक प्रतिष्‍ठा वाले नेता रहे हैं. संसदीय अखाड़े में जनसंघ और जनता पार्टी के दौर से गुजरते हुए भाजपा तक उन्‍होंने राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की राजनीति का नेतृत्‍व किया. गांधीवादी समाजवाद के साथ संम्‍बंध का उनका संक्षिप्‍त दौर अब भाजपा के इतिहास में एक भूला बिसरा पन्‍ना बन चुका है. आडवाणी के आक्रामक हिन्‍दुत्‍व वाले अभियान की परिणति में भाजपा के सबसे बड़ा दल बनने के बाद ये बाजपेयी ही थे जिन्‍हें शासन के प्र‍मुख चेहरे के रूप में भाजपा ने चुना था.

आरएसएस के सिद्धांतकार गोविन्‍दाचार्य ने उन्‍हें भाजपा का उदारवादी ‘मुखौटा’ कहा था, जबकि आडवाणी भाजपा का असली चेहरा थे. वे एक ऐसे दौर में भाजपा के सर्व प्रमुख प्रतिनिधि थे जब भाजपा को अपनी साम्‍प्रदायिक फासीवादी राजनीति के लिए एक मुखौटे की जरूरत थी. प्रथम राजग गठबंधन सरकार के सहयोगियों के लिए जिन्‍हें आडवाणी या मोदी जैसे ‘कट्टर’ माने जाने वाले संघियों को समर्थन देने में असुविधा हो सकती थी, बाजपेयी का मुखौटा उनके लिए उपयोगी था.

राजग की पहली सरकार के दौर में उनसे जिस भूमिका की मांग थी उसे निभाने के लिए बाजपेयी को अपनी राजनैतिक भाषा को थोड़ा नरम बनाना पड़ा. आज जब हम मोदी या अमित शाह द्वारा एनआरसी के सवाल पर आप्रवासियों के बारे में जहरीले प्रचार को सुनते हैं तो हमें 1983 में असम में एक चुनावी भाषण में बाजपेयी के उस वक्‍तव्‍य को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्‍होंने कहा था ‘‘विदेशी यहां घुस आये हैं और सरकार कुछ नहीं करती. अगर वे पंजाब में घुसे होते तो लोगों ने उनके टुकड़े-टुकड़े करके बिखरा दिये होते.’’ ठीक उसके बाद ही असम के नेल्‍ली में 2000 मुसलमानों का जनसंहार किया गया था. 1992 में बाजपेयी उन नेताओं में थे जो संघ की रणनीति के अनुरूप बाबरी मस्जिद विध्‍वंस की पूर्व संध्‍या पर ही अयोध्‍या छोड़ कर दिल्‍ली आ गये थे. अयोध्‍या छोड़ने से पहले बाजपेयी ने इशारों वाली भाषा में – वे निस्‍संदेह भाषण देने की कला के दिग्‍गज थे- कारसेवकों से कहा था कि उनके लिए विध्‍वंस के औजारों की जरूरत होना बिल्‍कुल स्‍वाभाविक है क्‍योंकि ‘जमीन को समतल करना जरूरी है’. इस भाषण के बाद श्रोताओं की उन्‍मादी गड़गड़ाहट से उसी क्षण स्‍पष्‍ट हो गया था कि उनका इशारा वे समझ गये हैं – अगले दिन कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को बाकायदा समतल कर दिया था.

प्रधानमंत्री के रूप में बाजपेयी ने गुजरात में 2002 में हुई साम्‍प्रदायिक हिंसा के लिए मोदी को राजधर्म निभाने की ‘नसीहत’ दी थी. पर साथ ही उन्‍होंने मोदी को मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने दिया और गुजरात के मुसलमानों की दंगों के दौरान और उसके बाद सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया. वे शिष्‍टाचार और बहस की हिमायत करते थे; पर गुजरात में धर्म परिवर्तन का विरोध करने के बहाने संघ द्वारा ईसाइयों के विरुद्ध की गई साम्‍प्रदायिक हिंसा के बाद उन्‍होंने ‘धर्म परिवर्तन पर बहस’ का आवाहन किया था. गुजरात जनसंहार, और इण्डिया शाइनिंग के जुमले के धराशायी होने के बाद 2004 में बाजपेयी नेतृत्‍व वाले राजग को भारी पराजय मिली.

आज भाजपा, राजग और उनकी सरकार एक बिल्‍कुल ही दूसरे दौर में हैं. अब उन्‍हें किसी मुखौटे की जरूरत नहीं रह गई है – भाजपा के दो स्‍टार प्रचारक मोदी और योगी अपने साम्‍प्रदायिक मंसूबों को छुपा कर नहीं रखते हैं. मंत्रियों द्वारा आज भीड़-हत्‍यारों को हार पहनाये जाते हैं, कैमरे के सामने एक मुसलमान को जिन्‍दा जलाने वाले को संघ के संगठन अपना नायक कहने में नहीं हिचकिचाते. ऐसी घटनाओं के बाद भाजपा को अब ‘गौ हत्‍या’ और ‘लव जेहाद’ पर घुमा-फिरा कर यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि ‘राष्‍ट्रीय बहस’ चलनी चाहिए. आडवाणी समेत, जो बाजपेयी दौर में राजग के भीतर उनके पूरक की भूमिका में थे, उस दौर के भाजपा नेता ‘मार्गदर्शक मण्‍डल’ में भेजे जा चुके हैं.

भारत के शासक वर्गों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की उस वैचारिक मरीचिका के प्रतिनिधि बाजपेयी रहे जिसके अनुसार भाजपा बगैर फासीवादी कोर के एक नरम दक्षिणपंथी पार्टी बन सकती है. बाजपेयी जी के देहान्‍त से बहुत पहले ही यह मरीचिका धुंधली हो गयी थी.

भारतीय दक्षिणपंथ के राजनीतिक इतिहास के लिए आज अटल बिहारी बाजपेयी एक महत्‍वपूर्ण संदर्भबिन्‍दु हैं, एक ऐसा पैमाना जिससे हमें कल के बाजपेयी युग और आज के मोदी के दौर के बीच की निरंतरता और फर्क को समझ कर वर्तमान फासीवादी हमले की तीव्रता को मापने में मदद मिलती है.

-    भाकपा(माले) लिबरेशन

16 अगस्‍त 2018

Sunday, July 9, 2017

भारत में घटने के बदले बढ़ रहा है कुपोषण

बाल विकास के मामले में भारत अब भी दूसरे देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। सरकारी योजनाओं पर करोड़ों खर्च के बावजूद देश में कुपोषण की समस्या गंभीर बनी हुई है। पूरी दुनिया के बच्चों के स्वास्थ्य, विकास, सुरक्षा और अधिकारों पर काम करने वाले संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने अब भारत से कुपोषण की समस्या के खात्मे के लिए अलख जगाई है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों फरीदाबाद में यूनिसेफ की ओर से तीन दिवसीय वर्कशॉप आयोजित हुई। उस दौरान विशेष तौर पर भारत भेजे गए यूनिसेफ के कंसल्टेंट रॉयस्टन मार्टिन से रमेश ठाकुर ने बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश:

• भारत में कुपोषण की समस्या कितनी गंभीर है? इस पर आप की राय क्या है?

यूनिसेफ की रिपोर्ट इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट रूप में कहती है कि हालात बेहद गंभीर हैं। भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या घटने की जगह बढ़ रही है। आदिवासी समुदाय व ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है। हिंदुस्तान में जन्म से पांच साल तक के बच्चों को वे सभी जरूरी टीके मुहैया नहीं कराए जाते जिनसे विभिन्न बीमारियों को रोका जाता है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अपने बच्चों को पोषण मुहैया कराने के मामले में बांग्लादेश और कांगो से भी पीछे है। इस संबंध में स्वास्थ्य मंत्रालय को गंभीर होने की आवश्यकता है। टीकाकरण को लेकर भारत सरकार को आंगनबाड़ी या आशा वर्करों पर ही पूरी तरह निर्भर नहीं रहना चाहिए। पोलियो की तरह कुपोषण के लिए भी जनजागरण की जरूरत है।

• आपकी नजर में हिंदुस्तान में कुपोषण की मुख्य वजह क्या है?

कुपोषण और भुखमरी गरीबी से जुड़ी हुई चीजें है। विश्व स्तर पर लाख प्रयासों के बावजूद गरीबी, कुपोषण और भुखमरी में कमी नहीं आई। यह रोग लगातार बढ़ता ही गया। इसका एक कारण कारण अन्न की बर्बादी भी है। गरीबी और भूख की समस्या का निदान खोजने और जागरूकता बढ़ाने का प्रयास किया तो जाता है लेकिन सिर्फ कागजों में। यह बहुत जरूरी है कि हम सब भोजन की अहमियत समझें और इसे किसी भी सूरत में बर्बाद न करें। आधी दुनिया आज भी अपनी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करने की चुनौती से जूझ रही है और काफी हद तक भुखमरी की शिकार है। वैश्विक समाज के संतुलित विकास के लिए यह आवश्यक है कि हर व्यक्ति को संतुलित भोजन की इतनी मात्रा मिले कि वह कुपोषण के दायरे से बाहर निकल कर एक स्वस्थ जीवन जी सके। इसके लिए जरूरी है कि विश्व में खाद्यान्न का उत्पादन भी पर्याप्त मात्रा में हो।

• टीकाकरण जागरूकता को लेकर यूनिसेफ की भारत में क्या योजना है?

यूनिसेफ पिछले 70 वर्षों से भारत में यहां की सरकारों के साथ मिलकर काम कर रहा है। यहां के बच्चे अपने अधिकारों से पूरी तरह से वंचित हैं। जन्म से पहले और जन्म के बाद बच्चों को मिलने वाले टीके उनका मौलिक अधिकार हैं। सभी बच्चों का टीकाकरण सही समय पर हो इसके लिए यूनिसेफ की ओर से भारत में जागरूकता वर्कशॉप का आयोजन किया जा रहा है। यूनिसेफ की नई रिपोर्ट के मुताबिक पांच साल से कम की उम्र में दम तोड़ देने वाले सबसे ज्याादा बच्चे भारत के हैं। हमारे शरीर में टीके की महत्ता का अंदाजा कम होती शिशु मृत्यु दर से लगाया जा सकता है। टीकाकरण को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए हमने फरीदाबाद में एक वर्कशॉप का आयोजन किया है जिसमें कुछ लोगों को प्रशिक्षित कर उन्हें टीकाकरण की जिम्मेदारी सौंपी है। भारत में यूनिसेफ अपने स्तर पर टीकाकरण कराना चाहता है।

• मगर टीकाकरण को ही लेकर भारत सरकार ने भी इंद्रधनुष योजना की शुरुआत की है...

25 दिसंबर, 2014 को शुरू किए गए मिशन इंद्रधनुष में 2020 तक 90 फीसद बच्चों को टीकाकरण के दायरे में लाने का लक्ष्य है। निःसंदेह योजना बहुत अच्छी है। लेकिन क्या इस पर ठीक से अमल हो पा रहा है/ शायद नहीं। स्वास्थ्य मंत्रालय से हमने इस बारे में जानकारी मांगी, पर नहीं दी गई। भारत में बच्चों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए यूनिसेफ ने बड़ी योजना बनाई है। हमारी टीम ने पिछले साल तक टीके की 2.5 अरब खुराक खरीद कर करीब सौ देशों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों तक पहुंचाया है। इन प्रयासों की बदौलत यूनिसेफ दुनिया में बच्चों के लिए टीकों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है।

• लेकिन भारत सरकार देश में बच्चों की स्थिति पर यूनिसेफ की रिपोर्ट से ज्यादा इत्तफाक नहीं रखती। सरकार का मानना है कि भारत में स्थिति नियंत्रण में है। क्या कहेंगे?

सरकारी अमला इस तल्ख हकीकत को स्वीकार करके उसका हल खोजने के बजाय आंकड़ों की बाजीगरी से जमीनी हकीकत को झुठलाने में ज्यादा रुचि लेता है। बावजूद इसके, यूनिसेफ किसी सरकार पर कोई आरोप नहीं लगा रहा। पूरे संसार में आज भी हर साल करीब 15 लाख बच्चों की मौत उन बीमारियों से होती है जिनकी रोकथाम करने वाले टीके बाजार में उपलब्ध हैं। भारत में भी ऐसी रिपोर्टे हैं कि टीका उपलब्ध होने के बावजूद बच्चे टीके से वंचित रहते हैं। टीकाकरण से डिप्थीरिया, खसरा, काली खांसी, निमोनिया, पोलियो, रोटावायरस दस्त, रूबेला और टिटनस जैसी लगभग 25 तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है। भारत सरकार को थोड़ा गंभीर होने की जरूरत है।

(नवभारत टाइम्स संपादकीय पेज से साभार)

Tuesday, September 17, 2013

Obama Gets Re-Elected with Reduced Majority

FOUR YEARS of Obama’s presidentship was nothing more than a continuation of the rule of his Republican predecessor, Bush. Though a major part of the US forces in Iraq was withdrawn as he had assured, it was almost compensated with the deployment of large forces and drones in Afghanistan and to Afghan-Pak border. Obama has repeatedly proved that he is no way less belligerent than Bush with the bloody intervention in Libya, manipulations in Egypt and West Asia where the Arab Spring had challenged the comprador regimes, through the threats against the
Iranian and Syrian regimes and through the hegemonic policies around the world.
He could not do anything to reduce the cascading consequences of the crisis of the global finance capital system which has led to change of governments in majority of the governments in capitalist countries, especially in Europe. He could not do anything to lessen the economic dissatisfaction and unemployment sweeping across US also. Rather, under his regime the differences between the Democrats and Republicans further disappeared. The continuing similarity in approach to all basic imperialist hegemonic policies between them became more glaring during last four years. So the presidential race between Obama and Republican Romney became practically a non-event as reflected in the debates between the two, which was less serious than those organized in schools.
So the re-election of Obama is also a non-event, another typical election result under the bourgeois democracies where no basic issues ever become a point of contention. Though he has promised to do many things to better the living conditions of the people of US, he has not proposed any changes in the economic policies which has led to the ever intensifying crises faced by the global imperialist system. So these promises shall remain almost totally unfulfilled. At the same time, in order to prove his credentials as a staunch advocate of Pax-Americana, during his second term he may prove as more belligerent than Bush. to transfer the burden of the US crisis to the shoulders of world people, by even resorting to aggressions against Syria or Iran or any other country depicted as the ‘centre of evil’ by the US and comprador propaganda machine, as Iraq and others were depicted earlier. His administration shall also try to intensify the trade war with China and provoke conflicts around China in the Asian region. The possibility for sharpening of the rivalry between US and China is also more. The way prime minister Manmohan Singh has lauded r-election of Obama, there are all possibilities for more subservience of the comprador regime of India to the US imperialists also. So the re-election of Obama will only enthuse compradors like Manmohan Singh. The working class and the oppressed peoples of the world have nothing to get enthused by it.