Saturday, June 9, 2007

शाह आलम कैम्प की रूहें

असगर वजाहत
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शाह आलम कैम्प मे दिन तो किसी न किसी तरह गुजर जाते हैं लेकिन रातें क़यामत की होती हैं। ऎसी नफ्सी-नफ्सी का आलम होता है कि अल्लाह बचाए। इतनी आवाजें होती हैं कि कान पडी आवाज़ नही सुने देती। चीख पुकार , शोर गुल , रोना चिल्लाना , आहें , सिसकियां ......
रात के वक़्त रूहें अपने बाल बच्चों से मिलने आती हैं , उनकी सुनी आंखो मे अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। बच्चो को सीने से लगा लेटी हैं। जिंदा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज़ चीखें निकली थीं वे पृष्ठभूमि मे गूंजती रहती हैं।
सारा कैम्प जब सो जता है , उन्हें इंतज़ार रहता है अपनी माँ को देखने का.....अब्बा के साथ खाना खाने का।
कैसे हो सिराज ? अम्मा की रूह ने सिराज के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
तुम कैसी हो अम्मा ?
माँ खुश नजर आ रही थीं बोली - सिराज....अब...मैं रूह हूँ.....अब मुझे कोई जला नही सकता। "
अम्मा...क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूँ ? "

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