साहिर
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से
जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुःख के बादल पिघ्लेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा
जब धरती नगमे गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर
ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो दिन आख़िर
दौलत-ओ-इजारेदारी के
जब एक अनोखी दुनिया की
बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
मनहूस समाजी ढांचों मे
जब जुल्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे
जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की
सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
संसार के सारे मेहनतकश
खेतों से, मिलों से निकलेंगे
बेघर , बेदर , बेबस इन्सान
तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अमन , खुश हाली के
फूलों से सजायी जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
जब धरती करवट बदलेगी
जब क़ैद से कैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे
जब जुल्म के बन्धन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लाएंगे
वो सुबह हम ही से आयेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
Saturday, June 9, 2007
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3 comments:
शुक्रिया यह रचना यहां उपलब्ध करवाने के लिए।
उस सुबह को तो आना ही पड़ेगा।
अच्छा लगा इसे यहां पढकर!
वो सुबह आयेगी.. जरुर आयेगी
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