Thursday, June 14, 2007

क्या नारद सिर्फ साहित्य का एक बंद कमरा बन कर रह गया ह

नारद हिंदी ब्लोग का सबसे सम्मानीय फीड एग्रीगेटर है। हिंदी ब्लोग की दुनिया जो कुछ ही साल पहले एक झोपड़ी थी , उसे घर फिर घर से गाँव और गाँव से लेकर कस्बे तक की अवस्था मे पंहुचाने का श्रेय अगर किसी को है तो वह निर्विवाद रुप से नारद को है , उसकी परिकल्पना कर उसे अब तक की अवस्था मे लाने का जो महान कार्य नारद के चलाने वालों ने किया है। हिंदी से तो उतना नए हम नही हैं जितना कि नारद से हैं। नारद अभी नया है लेकिन अब इतना भी नया नही है कि उसके फैसलो और कार्यकलापों पर बहस न की जा सके। kuhd नारद ने अपने बारे मे कहा है .....नारद की असली ताकत तो है हिन्दी चिट्ठाकार, जिनके सामूहिक सहयोग से नारद को स्थापित किया गया। नारद एक विचार है, एक आवाज है, हिन्दी चिट्ठों की। हिन्दी चिट्ठे है तो नारद है, उनके बिना नारद का क्या अस्तित्व? इसलिए आप अपना प्यार और स्नेह नारद मे बनाए रखिए। नारद अपने ब्लॉग नारद उवाच द्वारा आपसे संवाद कायम तो करते ही रहेंगे ही। किसी भी प्रकार की सहायता, समस्या, सुझाव अथवा आलोचना के लिए नारद के द्वार सदैव आपके लिए खुले है।
इससे ज्यादा खुली बात और क्या हो सकती है? इतना सब कहने के बावजूद भी अभी हाल ही मे एक चिठ्ठा बजार को हिंदी चिट्ठाजगत से बाहर निकाल देने की जो घटना हुई , वह निश्चय ही निंदनीय है। और सबसे बडे दुःख की बात तो यह है कि ये सब मेरे ही चिठ्ठे से शुरू हुआ। लेकिन इस घटना के बाद एक बहस शुरू हुई जिससे आशा की जा सकती थी कि एक स्वस्थ बहस शुरू हो , लेकिन ऐसा हुआ नही। उल्टे चिट्ठाकारी को बंद करने की बातें होने लगी। इसमे कोई शक नही कि प्रतिबंधित किये गए चिठ्ठे की भाषा अशोभनीय थी। लेकिन उसके बाद नारद के लोग भी काफी लिजलिजी सी हरकतें करने लगे तो शक होता है कि ऐसा क्यों। बेंगाणी बंधुओं ने नारद को चिट्ठी लिखकर कहा कि उक्त बजार ने उनके खिलाफ अशोभनीय बात कही है इसलिये उनका चिठ्ठा नारद से हटा दिया जाय। जितेंद्र भाई ने भी इसे खर पतवार का नाम दिया। अनूप जी ने भी कही कोई कसर बाकी नही छोडी । क्या यह साम्प्रदायिकता बनाम धर्म निरपेक्षता का मामला था या विचारधारा बनाम विचारधारा या फिर कुछ और जिसे हम अभी सोच नही पा रहे हैं। बेंगाणी बंधु नारद के संचालक मंडल मे हैं और नारद के सक्रिय सहयोगी भी। जितेंद्र जी भी नारद की व्यवस्था मे काफी सहयोग करते हैं। बेंगाणी बंधु चंदे वगैरह से नारद को सहयोग भी किया करते हैं लेकिन गली , मोहल्ले या बजारवाले नारद को ऐसा कोई सहयोग नही करते हैं। जाहिर है कि जिस देश मे चंदे देने वालों के हुक्म से सरकार चलती हो , वहाँ पर मात्र एक फीड गेटर और क्या उम्मीद की जा सकती है। हम वैश्विक धरातल पर पंहुचने का दवा तो करते हैं लेकिन हमारी सोच अभी तक वही गली मोहल्ले वाली है। जो चन्दा देगा , उसकी सुनी जायेगी और जो नही देगा , उसको बचाव का एक मौका तक नही दिया जाएगा। भले ही चन्दा देने वाला किसी के भी ब्लोग पर जाकर गलियां दे आये। ये तानाशाही नही तो और क्या है। खैर ये तो पुरानी परम्परा रही है कि कमजोर को ही दबाया जाता है। लेकिन अगर नारद सच मे एक पंथनिर्पेक्ष और लोकतांत्रिक प्लेट फॉर्म है तो क्या yअह माँग भी जायज नही है कि मेरी ब्लोग पर आकर गाली देने वाले बेंगाणी बंधुओं के खिलाफ भी कोई कार्रवाही की जाय ? लेकिन ऐसा होगा नही। क्यों कि चंदे के तो खेल ही निराले होते हैं।



क्या नारद सिर्फ साहित्य का एक बंद कमरा बन कर रह गया है या फिर इसे हिंदी ही नही बल्कि समाज मे जितनी भी तरह की असमानताएं हैं , उनके लिए अगर कोई बहस चलाई जाये तो उसका मंच नही बनना चाहिऐ ? मैं किसी अखाड़े की बात नही कर रहा हूँ , एक मंच की बात कर रहा हूँ। लेकिन ऐसा होता नही। कई लोग तो ऐसे हैं (जिनमे खुद नारद की सलाहकार समिति के लोग भी शामिल hain) जो ऎसी किसी बहस को कोई दिशा देने की जगह उसका बहिष्कार करना शुरू कर देते हैं , कुछ चिट्ठों का बहिष्कार करना शुरू कर देते हैं। यह तो उसी पक्षी वाली बात हुई जो कुछ भी होता देख अपना सर जमीन मे गाड़ देता है और समझता है कि अब कुछ नही होगा। लेकिन क्या इतने भर से ही बात ख़त्म हो जायेगी ? लेखक , साहित्यकार या पत्रकार , वही लिखता है जो समाज मे दिन प्रतिदिन होता रहता है। कही से कुछ भी नया नही रचा जाता है। कोई नयी कल्पना जन्म नही लेती है। रचना अपने आस पास हो रही क्रियाओं की ही प्रतिक्रिया है। तो क्या नारद को समाज से मिलने वाली फीडबैक के लिए तैयार नही रहना चाहिऐ ?

2 comments:

मसिजीवी said...

मैं आपकी साफगोई की प्रशंसा करता हूँ। आपने कई आशंका काफी खुले शब्‍दों में रखी हैं यही खुलापन ब्‍लॉगिंग की ताकत है। मुझे विश्‍वास है कि इनमें कई आशंकाएं निराधार हैं जल्‍द ही आपको भी विश्‍वास हो जाएगा किंतु इतने भर से इन आशंकाओं को व्‍यक्‍त करना निरर्थक नहीं हो जाता।

मेरी राय है कि एक मूल्‍य के रूप में लोकतंत्र के आ बसने में अरसा लगता है, नारद को भी लगेगा। किंतु हमें इसमें उसकी सहायता करनी चाहिए- आखिर ये हमारा ही नारद है, चन्‍दे का नहीं।

दास कबीर said...

तकनीक कितनी जल्दी आती है.
आज इस ब्लाग को पढिये और नारद के उस कदम पर सोचिये.
अभी तो सिर्फ बीस दिन भी नहीं हुये!